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Poems on nature in hindi- प्रकृति पर कविताये


Poem on nature in Hindi

 प्रकृति पर कविताये / Poems on nature


Poems on nature in hindi


दोस्तों हमारे भारत के कवियों ने कविता में प्रकृति की सुंदरता का वर्णन किया है मैं हमेशा से ही प्रकृति में एक नारी की छवि को देख कर आए हैं. हमारे देश के  कवियों ने प्रकृति के  हर रूपों का वर्णन अपनी कविताओं में किया है. चाहे धूप हो या शाम दिन हो या रात हवा हो या पानी गर्मी है बरसात इन सभी का वर्णन हमारे कवि द्वारा इतनी अच्छी तरह से किया है जो  किसी का भी मन मोह लें. दोस्तों आज के इस पोस्ट में मैं आपके लिए कुछ बहुत ही अच्छी प्रकृति से जुड़ी हुई कविताएं को लेकर आया हूं जो आपका मन मोह लेंगी.


Poem on nature in Hindi
 प्रकृति पर कविताये / Poems on nature

1.


प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है / श्रीकृष्ण सरल


प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,

मार्ग वह हमें दिखाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।


नदी कहती है' बहो, बहो

जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।

जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,

पूर्णता जीवन की पाओ।

विश्व गति ही तो जीवन है,

अगति तो मृत्यु कहाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।


शैल कहतें है, शिखर बनो,

उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।

ठोस आधार तुम्हारा हो,

विशिष्टिकरण सहारा हो।

रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,

उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।


वृक्ष कहते हैं खूब फलो,

दान के पथ पर सदा चलो।

सभी को दो शीतल छाया,

पुण्य है सदा काम आया।

विनय से सिद्धि सुशोभित है,

अकड़ किसकी टिक पाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।


यही कहते रवि शशि चमको,

प्राप्त कर उज्ज्वलता दमको।

अंधेरे से संग्राम करो,

न खाली बैठो, काम करो।

काम जो अच्छे कर जाते,

याद उनकी रह जाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।


Poem on nature in Hindi
 प्रकृति पर कविताये / Poems on nature


संध्या सुन्दरी / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"


दिवसावसान का समय-

मेघमय आसमान से उतर रही है

वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,

धीरे, धीरे, धीरे

तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,

मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,

किंतु गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।


हँसता है तो केवल तारा एक-

गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,

हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।


अलसता की-सी लता,

किंतु कोमलता की वह कली,

सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,

छाँह सी अम्बर-पथ से चली।


नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,

नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,

नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,

सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'

है गूँज रहा सब कहीं-

व्योम मंडल में, जगतीतल में-

सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में-

सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में-

धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में-

उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में-

क्षिति में, जल में,नभ में, अनिल-अनल में-

सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'

है गूँज रहा सब कहीं-

और क्या है? कुछ नहीं।


मदिरा की वह नदी बहाती आती,

थके हुए जीवों को वह सस्नेह,

प्याला एक पिलाती।

सुलाती उन्हें अंक पर अपने,

दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।


अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन,

कवि का बढ़ जाता अनुराग,

विरहाकुल कमनीय कंठ से,

आप निकल पड़ता तब एक विहाग!


 प्रकृति पर कविताये 
 Poems on nature


बसंती हवा- केदारनाथ अग्रवाल


हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ।


        सुनो बात मेरी -

        अनोखी हवा हूँ।

        बड़ी बावली हूँ,

        बड़ी मस्तमौला।

        नहीं कुछ फिकर है,

        बड़ी ही निडर हूँ।

        जिधर चाहती हूँ,

        उधर घूमती हूँ,

        मुसाफिर अजब हूँ।


न घर-बार मेरा,

न उद्देश्य मेरा,

न इच्छा किसी की,

न आशा किसी की,

न प्रेमी न दुश्मन,

जिधर चाहती हूँ

उधर घूमती हूँ।

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ!


        जहाँ से चली मैं

        जहाँ को गई मैं -

        शहर, गाँव, बस्ती,

        नदी, रेत, निर्जन,

        हरे खेत, पोखर,

        झुलाती चली मैं।

        झुमाती चली मैं!

        हवा हूँ, हवा मै

        बसंती हवा हूँ।


चढ़ी पेड़ महुआ,

थपाथप मचाया;

गिरी धम्म से फिर,

चढ़ी आम ऊपर,

उसे भी झकोरा,

किया कान में 'कू',

उतरकर भगी मैं,

हरे खेत पहुँची -

वहाँ, गेंहुँओं में

लहर खूब मारी।


        पहर दो पहर क्या,

        अनेकों पहर तक

        इसी में रही मैं!

        खड़ी देख अलसी

        लिए शीश कलसी,

        मुझे खूब सूझी -

        हिलाया-झुलाया

        गिरी पर न कलसी!

        इसी हार को पा,

        हिलाई न सरसों,

        झुलाई न सरसों,

        हवा हूँ, हवा मैं

        बसंती हवा हूँ!


मुझे देखते ही

अरहरी लजाई,

मनाया-बनाया,

न मानी, न मानी;

उसे भी न छोड़ा -

पथिक आ रहा था,

उसी पर ढकेला;

हँसी ज़ोर से मैं,

हँसी सब दिशाएँ,

हँसे लहलहाते

हरे खेत सारे,

हँसी चमचमाती

भरी धूप प्यारी;

बसंती हवा में

हँसी सृष्टि सारी!

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ!

                                     - केदारनाथ अग्रवाल


Poem on nature in Hindi
 प्रकृति पर कविताये / Poems on nature


मेघ आए / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

मेघ आए बड़े बन-ठन के, सँवर के ।

आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली

दरवाजे-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली

पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के ।


पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए

आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए

बाँकी चितवन उठा नदी, ठिठकी, घूँघट सरके ।


बूढ़े़ पीपल ने आगे बढ़ कर जुहार की

‘बरस बाद सुधि लीन्ही’

बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की

हरसाया ताल लाया पानी परात भर के ।


क्षितिज अटारी गदराई दामिनि दमकी

‘क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की’

बाँध टूटा झर-झर मिलन अश्रु ढरके

मेघ आए बड़े बन-ठन के, सँवर के ।


फागुन की शाम / धर्मवीर भारती

घाट के रस्ते

उस बँसवट से

इक पीली-सी चिड़िया

उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!


मुझे पुकारे!

ताना मारे,

भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन,

ये फागुन की शाम है!


घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं

झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं

तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी

यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी


आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी!

अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!


इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई

फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी!

यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन!

यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन!


लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती!

तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है!

अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले

कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले

ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा

मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा


पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से

कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है!

ये फागुन की शाम है!


Poem on nature in Hindi
 प्रकृति पर कविताये / Poems on nature


चाँदनी की रात है / गिरिजाकुमार माथुर

चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ

ज़िन्‍दगी में चाँदनी कैसे भरूँ


दूर है छिटकी छबीली चाँदनी

बहुत पहली देह-पीली चाँदनी

चौक थे पूरे छुई के : चाँदनी

दीप ये ठण्‍डे रुई के : चाँदनी

पड़ रही आँगन तिरछी चाँदनी

गन्‍ध चौके भरे मैले वसन

गृहिणी चाँदनी


याद यह मीठी कहाँ कैसे धरूँ

असलियत में चाँदनी कैसे भरूँ


फूल चम्‍पे का खिला है चाँद में

दीप ऐपन का जला है चाँद में

चाँद लालिम उग कर उजला हुआ

कामिनी उबटन लगा आई नहा

राह किसकी देखती यह चाँदनी

दूर देश पिया, अकेली चाँदनी


चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ

आसुँओं में चाँदनी कैसे भरूँ


शहर, कस्‍बे, गाँव, ठिठकी चाँदनी

एक जैसी पर न छिटकी चाँदनी

कागजों में बन्‍द भटकी चाँदनी

राह चलते कहाँ अटकी चाँदनी

हविस, हिंसा, होड़ है उन्‍मादिनी

शहर में दिखती नहीं है चाँदनी


चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ

कुटिलता में चाँदनी कैसे भरूँ


गाँव की है रात चटकी चाँदनी

है थकन की नींद मीठी चाँदनी

दूध का झरता बुरादा : चाँदनी

खोपरे की मिगी कच्‍ची चाँदनी


उतर आई रात दूर विहान है

वक्त का ठहराव है सुनसान है


चाँदनी है फसल

ठंडे बाजरे की ज्‍वार की

गोल नन्‍हे चाँद से दाने

उजरिया मटीले घर-द्वार की

एक मुट्ठी चाँदनी भी रह न पाई

जब्र लूटे धूजते संसार की

दबे नंगे पाँव लुक-छिप भागती है

धूल की धौरी नदी गलियार की

चुक गई सारी उमर की चाँदनी


बाल सन से ऊजरे ज्‍यों चाँदनी

कौड़ियों-सी बिछी उजली चाँदनी

कौड़ियों के मोल बिकती चाँदनी

और भी लगती सुहानी चाँदनी

धान, चावल, चून होती चाँदनी


चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ

पंजरों में चाँदनी कैसे भरूँ


गाँव का बूढ़ा कहे सुन चाँदनी

रात काली हो कि होवे चाँदनी

गाँव पर अब भी अँधेरा पाख है

साठ बरसों में न बदली चाँदनी

फिर मिलेगी कब दही-सी चाँदनी

दूध, नैनू, घी, मही-सी चाँदनी


चाँदनी की रात है तो क्‍या करूँ

डण्‍ठलों में चाँदनी कैसे भरूँ


वर्षा ने आज विदाई ली / माखनलाल चतुर्वेदी


वर्षा ने आज विदाई ली जाड़े ने कुछ अंगड़ाई ली

प्रकृति ने पावस बूँदो से रक्षण की नव भरपाई ली।


सूरज की किरणों के पथ से काले काले आवरण हटे

डूबे टीले महकन उठ्ठी दिन की रातों के चरण हटे।


पहले उदार थी गगन वृष्टि अब तो उदार हो उठे खेत

यह ऊग ऊग आई बहार वह लहराने लग गई रेत।


ऊपर से नीचे गिरने के दिन रात गए छवियाँ छायीं

नीचे से ऊपर उठने की हरियाली पुन: लौट आई।


अब पुन: बाँसुरी बजा उठे ब्रज के यमुना वाले कछार

धुल गए किनारे नदियों के धुल गए गगन में घन अपार।


अब सहज हो गए गति के वृत जाना नदियों के आर पार

अब खेतों के घर अन्नों की बंदनवारें हैं द्वार द्वार।


नालों नदियों सागरो सरों ने नभ से नीलांबर पाए

खेतों की मिटी कालिमा उठ वे हरे हरे सब हो आए।


मलयानिल खेल रही छवि से पंखिनियों ने कल गान किए

कलियाँ उठ आईं वृन्तों पर फूलों को नव मेहमान किए।


घिरने गिरने के तरल रहस्यों का सहसा अवसान हुआ

दाएँ बाएँ से उठी पवन उठते पौधों का मान हुआ।


आने लग गई धरा पर भी मौसमी हवा छवि प्यारी की

यादों में लौट रही निधियाँ मनमोहन कुंज विहारी की।



Poem on nature in Hindi
 प्रकृति पर कविताये / Poems on nature


आया वसंत आया वसंत / सोहनलाल द्विवेदी


आया वसंत आया वसंत

छाई जग में शोभा अनंत।


सरसों खेतों में उठी फूल

बौरें आमों में उठीं झूल

बेलों में फूले नये फूल


पल में पतझड़ का हुआ अंत

आया वसंत आया वसंत।


लेकर सुगंध बह रहा पवन

हरियाली छाई है बन बन,

सुंदर लगता है घर आँगन


है आज मधुर सब दिग दिगंत

आया वसंत आया वसंत।


भौरे गाते हैं नया गान,

कोकिला छेड़ती कुहू तान

हैं सब जीवों के सुखी प्राण,


इस सुख का हो अब नही अंत

घर-घर में छाये नित वसंत।


ओस / सोहनलाल द्विवेदी


हरी घास पर बिखेर दी हैं

ये किसने मोती की लड़ियाँ?

कौन रात में गूँथ गया है

ये उज्‍ज्‍वल हीरों की करियाँ?


जुगनू से जगमग जगमग ये

कौन चमकते हैं यों चमचम?

नभ के नन्‍हें तारों से ये

कौन दमकते हैं यों दमदम?


लुटा गया है कौन जौहरी

अपने घर का भरा खजा़ना?

पत्‍तों पर, फूलों पर, पगपग

बिखरे हुए रतन हैं नाना।


बड़े सवेरे मना रहा है

कौन खुशी में यह दीवाली?

वन उपवन में जला दी है

किसने दीपावली निराली?


जी होता, इन ओस कणों को

अंजली में भर घर ले आऊँ?

इनकी शोभा निरख निरख कर

इन पर कविता एक बनाऊँ।


कोयल / सुभद्राकुमारी चौहान


  सुभद्राकुमारी चौहान »

देखो कोयल काली है पर

मीठी है इसकी बोली

इसने ही तो कूक कूक कर

आमों में मिश्री घोली


कोयल कोयल सच बतलाना

क्या संदेसा लायी हो

बहुत दिनों के बाद आज फिर

इस डाली पर आई हो


क्या गाती हो किसे बुलाती

बतला दो कोयल रानी

प्यासी धरती देख मांगती

हो क्या मेघों से पानी?


कोयल यह मिठास क्या तुमने

अपनी माँ से पायी है?

माँ ने ही क्या तुमको मीठी

बोली यह सिखलायी है?


डाल डाल पर उड़ना गाना

जिसने तुम्हें सिखाया है

सबसे मीठे मीठे बोलो

यह भी तुम्हें बताया है


बहुत भली हो तुमने माँ की

बात सदा ही है मानी

इसीलिये तो तुम कहलाती

हो सब चिड़ियों की रानी


प्रकृति संदेश / सोहनलाल द्विवेदी


  सोहनलाल द्विवेदी »

पर्वत कहता शीश उठाकर,

तुम भी ऊँचे बन जाओ।

सागर कहता है लहराकर,

मन में गहराई लाओ।


समझ रहे हो क्या कहती हैं

उठ उठ गिर गिर तरल तरंग

भर लो भर लो अपने दिल में

मीठी मीठी मृदुल उमंग!


पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो

कितना ही हो सिर पर भार,

नभ कहता है फैलो इतना

ढक लो तुम सारा संसार!


जगमग जगमग / सोहनलाल द्विवेदी


हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,

नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,

कैसी उजियाली है पग-पग?

जगमग जगमग जगमग जगमग!


छज्जों में, छत में, आले में,

तुलसी के नन्हें थाले में,

यह कौन रहा है दृग को ठग?

जगमग जगमग जगमग जगमग!


पर्वत में, नदियों, नहरों में,

प्यारी प्यारी सी लहरों में,

तैरते दीप कैसे भग-भग!

जगमग जगमग जगमग जगमग!


राजा के घर, कंगले के घर,

हैं वही दीप सुंदर सुंदर!

दीवाली की श्री है पग-पग,

जगमग जगमग जगमग जगमग


बादल हैं किसके काका ? / सुभद्राकुमारी चौहान


अभी अभी थी धूप, बरसने

लगा कहाँ से यह पानी

किसने फोड़ घड़े बादल के

की है इतनी शैतानी।


सूरज ने क्‍यों बन्द कर लिया

अपने घर का दरवाज़ा

उसकी माँ ने भी क्‍या उसको

बुला लिया कहकर आजा।


ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं

बादल हैं किसके काका

किसको डाँट रहे हैं, किसने

कहना नहीं सुना माँ का।



तो आपको हमारा यह पोस्ट कैसा लगा प्लीज कमेंट करके बताए  क्योंकि आपके कमेंट से हमें अपनी  ताकत और कमजोरी के बारे में पता चलता है और हमें यह लगता है कि हमारी मेहनत सफल हो रही है. 









































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