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बाल कविताएं हिंदी में-poems for kids in hindi

 

Poems for kids in hindi

बाल कविताएं हिंदी में. 


दोस्तों आज मै आप बच्चो लिए लाया हूँ  कुछ बाल कविताएं जो आपको काफी पसंद आएँगी। दोस्तों बाल कविताओ हमे अपने  बीते  हुए बचपन में जाती हैं  और हमारी बचपन की  यादों ताज़ा हैं। दोस्तों  बाल कविताएं  सिर्फ बच्चो  को ही  नहीं बल्कि बड़े लोगो भी काफी पसंद आती हैं। दोस्तों कई बाल कविताये हमे हंसाती और कुछ बाल कविताएँ हमे हँसाने के साथ के कुछ महत्वपूर्ण सीख भी दे जाती हैं।  दोस्तों बाल कविताये हमे अपने आस पास की दुनिया,जीवो ,प्रकृति ,लोगो और अच्छे ,बुरे के बारे में भी रूबरू करवाती हैं 


मेंढक और साँप / सोहनलाल द्विवेदी


गंगदत्त मेंढक की बच्चो,

सुन लो एक कहानी।

इसका मर्म अगर समझोगे,

बन जाओगे ज्ञानी।


बहुत दिनों की बात, कथा भी,

यह है बहुत पुरानी।

पर इतनी अच्छी है मुझको,

अब तक याद जबानी।


एक कुआँ था बड़ा, भरा था

जिसमें गहरा पानी,

राजा उसका गंगदत्त था,

गंगदत्तनी रानी।


वहीं और मेंढक मेंढकियाँ

रहती थीं मनमानी-

जल में हिलमिल खेला करतीं-

करती थीं शैतानी।


गंगदत्त को एक रोज,

इन सबने बहुत सताया।

गंगदत्त राजा के मन में

गुस्सा भी तब आया।


गंगदत्त ने कहा चलूँ मैं

इनको मजा चखाऊँ,

गंगदत्त राजा तब ही मैं

दुनियाँ में कहलाऊँ।


गंगदत्त चल पड़ा सोचता

यों ही बातें मन में।

नागदत्त नागों का राजा

उसे मिल गया बन में।


गंगदत्त ने सोचा मन में,

इसको दोस्त बनाऊँ-

तो मैं दुष्ट मेंढकों से फिर

बदला खूब चुकाऊँ।


गंगदत्त ने कहा, जरा

ठहरो, नागों के राजा!

अभी ढूँढने चला तुम्हारे

घर का मैं दरवाजा।


मुझे कूप के सभी मेंढकों

ने है बहुत सताया।

इसीलिए, मैं दुखिया बन कर

शरण तुम्हारी आया।


चाहो तुम ही मुझको खा लो,

चाहो मुझे बचाओ।

पर इन दुष्ट मेंढकों से तुम

मेरा पिंड छुड़ाओ।


नागदत्त ने कहा, नहीं

मन में घबराओ भाई!

बतलाओ तो मुझे कौन सी

आफत तुम पर आयी?


गंगदत्त ने नागदत्त को,

तब सब हाल बताया-

कैसे वहां मेंढकों ने था,

उसको खूब सताया।


नागदत्त ने कहा, चलो,

दुष्टों को अभी दिखाओ,

उनका अभी नाश करता हूँ,

सब के नाम गिनाओ।


गंगदत्त ने मन में कुछ भी,

सोचा नहीं विचारा।

चला जाति का नाश कराने,

वह पापी हत्यारा!


गंगदत्त यों नागदत्त को,

अपने घर ले आया।

उसने सभी मेंढकों को,

पल भर में तुरत दिखाया।


नागदत्त का क्या कहना था,

लगा सभी को खाने।

मची कुएँ में भारी हलचल

लगे सभी चिल्लाने!


उसका हाल न पूछो, कहते

बनता नहीं जबानी,

गला रुका जाता, आँखों में

भर भर आता पानी।


नागदत्त यों लगा कुएँ में

खाने सुख से, जीने,

खाते पीते बीत गये जब

यों ही कई महीने;


हुआ जाति नाश गए जब

सारे मेंढक मारे;

गंगदत्त से नागदत्त तब

बोला कुआँ किनारे-


बात तुम्हारी मान, यहाँ पर

रहता हूँ मैं भाई!

भोजन और बताओ, वरना

होगी बड़ी बुराई।


गंगदत्त यह सुनकर चौंका

और बहुत घबराया।

बड़ी देर चुपचाप रहा, कुछ

उसकी समझ न आया।


नागदत्त ने कहा, वंश

वालों को अपने लाओ।

अब मैं उनको ही खाऊँगा,

जाओ, जल्दी आओ।


टर्र! टर्र! कर गंगदत्त ने

कहा, सुनो हे भाई!

अब तुम अपने घर को जाओ,

तो हो बहुत भलाई।


फुफकारा तब नागदत्त ने

कहा, कहाँ अब जाऊँ?

मेरा घर तो उजड़ गया

क्या फिर से नया बनाऊँ?


अब मैं हरदम यहीं रहूँगा

कहीं नहीं जाऊँगा;

तुम लोगों को पकड़-पकड़ कर

रोज यहीं खाऊँगा!


इस प्रकार जब गंगदत्त पर

गहरा संकट आया,

उसने अपने रिश्तेदारों को

ला ला कर पहुँचाया।


नागदत्त यों रोज रोज

रिश्तेदारों को खाता,

गंगदत्त यह देख देख

मन ही मन था घबराता।


जमुनादत्त पुत्र था प्यारा

बड़े प्यार से पाला,

नागदत्त ने एक रोज ले

उसको भी खा डाला।


अब मत पूछो गंगदत्त की,

वह रोया चिल्लया;

बड़ी देर बेहोश रहा, कुछ

उसको सूझ न पाया।


गंगदत्तनी ने खुद जाकर

तब उसको समझाया।

कैसे प्राण बचें उसने

इसका उपाय बतलाया।


गंगदत्तनी बोली, अब तो

कहना मानो स्वामी!

इसमें ही कल्याण तुम्हारा

होगा, जानो स्वामी।


सब तो नाश कराया, अब तो

इसको छोड़े स्वामी।

निकल चलो बाहर, इस घर से

नाता तोड़ो स्वामी।


गंगदत्त औ गंगदत्तनी ने

घर छोड़ा अपना।

जैसा काम किया वैसा ही

उनको पड़ा भुगतना।


गंगदत्त मेंढक की बच्चो!

पूरी हुई कहानी!

मैंने याद रखी है, तुम भी

रखना याद जबानी।


जब घर में हो फूट, कभी,

दुश्मन को नहीं बुलाना।

गंगदत्त मेंढक बनकर मत

जग में हंसी करना!


धम्मक धम्मक आगत हाथी 

धम्मक धम्मकआता हती,

धम्मक धम्मकजाता हथि।


जब पानी में जाता हाथी ,

भर भर सूंड नहाता हाथी 


कितने केले खाता है,

ये नहिं बताता हाथी ।


धम्मक धम्मक आता हाथी  ,

धम्मक धम्मकजाता हाथी ,


यह कदम्ब का पेड़ / सुभद्राकुमारी चौहान

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥


ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।

किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥


तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।

उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥


वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।

अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥


बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।

माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता॥


तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।

ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे॥


तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।

और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता॥


तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।

जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं॥


इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे॥


बसंती हवा

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ।


        सुनो बात मेरी -

        अनोखी हवा हूँ।

        बड़ी बावली हूँ,

        बड़ी मस्तमौला।

        नहीं कुछ फिकर है,

        बड़ी ही निडर हूँ।

        जिधर चाहती हूँ,

        उधर घूमती हूँ,

        मुसाफिर अजब हूँ।


न घर-बार मेरा,

न उद्देश्य मेरा,

न इच्छा किसी की,

न आशा किसी की,

न प्रेमी न दुश्मन,

जिधर चाहती हूँ

उधर घूमती हूँ।

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ!


        जहाँ से चली मैं

        जहाँ को गई मैं -

        शहर, गाँव, बस्ती,

        नदी, रेत, निर्जन,

        हरे खेत, पोखर,

        झुलाती चली मैं।

        झुमाती चली मैं!

        हवा हूँ, हवा मै

        बसंती हवा हूँ।


चढ़ी पेड़ महुआ,

थपाथप मचाया;

गिरी धम्म से फिर,

चढ़ी आम ऊपर,

उसे भी झकोरा,

किया कान में 'कू',

उतरकर भगी मैं,

हरे खेत पहुँची -

वहाँ, गेंहुँओं में

लहर खूब मारी।


        पहर दो पहर क्या,

        अनेकों पहर तक

        इसी में रही मैं!

        खड़ी देख अलसी

        लिए शीश कलसी,

        मुझे खूब सूझी -

        हिलाया-झुलाया

        गिरी पर न कलसी!

        इसी हार को पा,

        हिलाई न सरसों,

        झुलाई न सरसों,

        हवा हूँ, हवा मैं

        बसंती हवा हूँ!


मुझे देखते ही

अरहरी लजाई,

मनाया-बनाया,

न मानी, न मानी;

उसे भी न छोड़ा -

पथिक आ रहा था,

उसी पर ढकेला;

हँसी ज़ोर से मैं,

हँसी सब दिशाएँ,

हँसे लहलहाते

हरे खेत सारे,

हँसी चमचमाती

भरी धूप प्यारी;

बसंती हवा में

हँसी सृष्टि सारी!

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ!

- केदारनाथ अग्रवाल


जागो प्यारे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’


उठो लाल अब आँखे खोलो

पानी लाई हूँ मुँह धो लो


बीती रात कमल दल फूले

उनके ऊपर भंवरे डोले


चिड़िया चहक उठी पेड़ पर

बहने लगी हवा अति सुंदर


नभ में न्यारी लाली छाई

धरती ने प्यारी छवि पाई


भोर हुआ सूरज उग आया

जल में पड़ी सुनहरी छाया


ऐसा सुंदर समय न खोओ

मेरे प्यारे अब मत सोओ


बंदर और मदारी / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

देखो लड़को, बंदर आया, एक मदारी उसको लाया।

उसका है कुछ ढंग निराला, कानों में पहने है बाला।

फटे-पुराने रंग-बिरंगे कपड़े हैं उसके बेढंगे।

मुँह डरावना आँखें छोटी, लंबी दुम थोड़ी-सी मोटी।

भौंह कभी है वह मटकाता, आँखों को है कभी नचाता।

ऐसा कभी किलकिलाता है, मानो अभी काट खाता है।

दाँतों को है कभी दिखाता, कूद-फाँद है कभी मचाता।

कभी घुड़कता है मुँह बा कर, सब लोगों को बहुत डराकर।

कभी छड़ी लेकर है चलता, है वह यों ही कभी मचलता।

है सलाम को हाथ उठाता, पेट लेटकर है दिखलाता।

ठुमक ठुमककर कभी नाचता, कभी कभी है टके जाँचता।

देखो बंदर सिखलाने से, कहने सुनने समझाने से-

बातें बहुत सीख जाता है, कई काम कर दिखलाता है।

बनो आदमी तुम पढ़-लिखकर, नहीं एक तुम भी हो बंदर।


"माँ कह एक कहानी।"

बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"

"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी

कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?

माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,

तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।"

"जहाँ सुरभि मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,

हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"

"लहराता था पानी, हाँ-हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल-कल स्वर से, सहसा एक हंस ऊपर से,

गिरा बिद्ध होकर खग शर से, हुई पक्ष की हानी।"

"हुई पक्ष की हानी? करुणा भरी कहानी!"

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,

इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"

"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"


"मांगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,

तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"

"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"


हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,

गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सभी ने जानी।"

"सुनी सभी ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"


राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?

कह दे निर्भय जय हो जिसका, सुन लूँ तेरी बानी"

"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।


कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे?

रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"

"न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।"

                                                                      -मैथिलीशरण गुप्त


हम दीवानों की क्या हस्ती / भगवतीचरण वर्मा


हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले ।

मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।


आए बनकर उल्लास कभी, आंसू बनकर बह चले अभी

सब कहते ही रह गए, अरे, तुम कैसे आए, कहाँ चले ।


किस ओर चले? मत ये पूछो, बस, चलना है इसलिए चले

जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले ।


दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हंसे और फिर कुछ रोए

छक कर सुख-दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले ।


हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले

हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले ।


हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके

हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले ।


हम भला-बुरा सब भूल चुके, नतमस्तक हो मुख मोड़ चले

अभिशाप उठाकर होठों पर, वरदान दृगों से छोड़ चले ।


अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले

हम स्वयं बन्धे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले ।


चल परियों के देश / रघुवीर सहाय

चल परियों के देश

इस दुनिया में क्या रखा है,

लड्डू-पेड़ा और मलाई

यह सब तो हमने चखा है।

हमने तो खाए हैं भाई

रसगुल्ले संदेश!

चल परियों के देश!


भला वहाँ पर क्या क्या होगा?

एक बड़ा-सा आँगन होगा,

छोटी-सी होगी फुलवारी

खेलेंगे हम जब मन होगा।

या सींचेंगे अपनी क्यारी,

पढ़ना-लिखना भी होगा-

सबको कम औ बेश!

चल परियों के देश!


क्या-क्या वहाँ नहीं होवेगा?

मास्साहब की छड़ी न होगी,

जब करते होंगे शैतानी

सिर पर अम्माँ खड़ी न होगी!

करते ही करते मनमानी

दिन होवेगा शेष!

चल परियों के देश!


देखो जी मत भीड़ लगाओ

वरना सबको होगी मुश्किल,

एक-एक कर करके आओ

आओ टुन्नू-मुन्नू, चिलबिल-

चंदर और महेश!

चल परियों के देश!

मधुमक्खी / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

  रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ »

मधुमक्खी है नाम तुम्हारा।

शहद बनाना काम तुम्हारा।।


छत्ते में मधु को रखती हो।

कभी नही इसको चखती हो।।


कंजूसी इतनी करती हो।

रोज तिजोरी को भरती हो।।


दान-पुण्य का काम नही है।

दया-धर्म का नाम नही है।।


इक दिन डाका पड़ जायेगा।

शहद-मोम सब उड़ जायेगा।।


मिट जायेगा यह घर-बार।

लुट जायेगा यह संसार।।


जो मिल-बाँट हमेशा खाता।

कभी नही वो है पछताता।।


चिड़िया रानी / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

चिड़िया रानी फुदक-फुदक कर,

मीठा राग सुनाती हो ।

आनन-फानन में उड़ करके,

आसमान तक जाती हो ।।


मेरे अगर पंख होते तो,

मैं भी नभ तक हो आता ।

पेड़ो के ऊपर जा करके,

ताज़े-मीठे फल खाता ।।


जब मन करता मैं उड़ कर के,

नानी जी के घर जाता ।

आसमान में कलाबाज़ियाँ कर के,

सबको दिखलाता ।।


सूरज उगने से पहले तुम,

नित्य-प्रति उठ जाती हो ।

चीं-चीं, चूँ-चूँ वाले स्वर से ,

मुझको रोज़ जगाती हो ।।


तुम मुझको सन्देशा देती,

रोज सवेरे उठा करो ।

अपनी पुस्तक को ले करके,

पढ़ने में नित जुटा करो ।।


चिड़िया रानी बड़ी सयानी,

कितनी मेहनत करती हो ।

एक-एक दाना बीन-बीन कर,

पेट हमेशा भरती हो ।।


अपने कामों से मेहनत का,

पथ हमको दिखलाती हो ।

जीवन श्रम के लिए बना है,

सीख यही सिखलाती हो ।।


पकौड़ी की कहानी / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

दौड़ी-दौड़ी

आई पकौड़ी


छुन-छुन छुन-छुन

तेल में नाची,

प्लेट में आ

शरमाई पकौड़ी।


दौड़ी-दौड़ी

आई पकौड़ी।


हाथ से उछली

मुह में पहुँची,

पेट में जा

घबराई पकौड़ी।


दौड़ी-दौड़ी

आई पकौड़ी।


मेरे मन को

भाई पकौड़ी।

पढ़ना-लिखना मज़बूरी है! / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

  रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ »

मुश्किल हैं विज्ञान, गणित,

हिन्दी ने बहुत सताया है ।

अंग्रेज़ी की देख जटिलता,

मेरा मन घबराया है ।।


भूगोल और इतिहास मुझे,

बिल्कुल भी नही सुहाते हैं ।

श्लोकों के कठिन अर्थ,

मुझको करने नही आते हैं ।।


देखी नही किताब उठाकर,

खेल-कूद में समय गँवाया ।

अब सिर पर आ गई परीक्षा,

माथा मेरा चकराया ।।


बिना पढ़े ही मुझको ,

सारे प्रश्नपत्र हल करने हैं ।

किस्से और कहानी से ही,

काग़ज़-कॉपी भरने हैं ।।


नाहक अपना समय गँवाया,

मैं यह ख़ूब मानता हूँ ।

स्वाद शून्य का चखना होगा,

मैं यह ख़ूब जानता हूँ ।।


तन्दरुस्ती के लिए खेलना,

सबको बहुत ज़रूरी है ।

किन्तु परीक्षा की ख़ातिर,

पढ़ना-लिखना मज़बूरी है ।।

गिलहरी / उषा यादव

प्यारी–प्यारी एक गिलहरी।

मेरी दोस्त बन गई गहरी।


दौड़ लगाती शाखाओं पर।

उपर जाकर, नीचे आकर।


मैं खिड़की के पास अकेली।

खड़ी होऊँ ले खुली हथेली।


वह धीरे से आगे आए।

किशमिश के दाने चुन खाए।


बिना हिले मैं ठहरूँ जब तक।

किशमिश वह चुनती है तब तक।


लो, सब खाकर फौरन खिसकी।

अब वह दोस्त कहाँ, कब किसकी?


डरती है, छोड़ो, जाने दो।

किशमिश खाने ही आने दो।


और दोस्ती होगी गहरी।

मुझको देगी प्यार गिलहरी।

नकली शेर / सोहनलाल द्विवेदी

सुनो गधे की एक कहानी,

उसने की कैसी शैतानी।

जब होती थी रात घनेरी,

तब करता था वह नित फेरी।


चुपके चुपके बाहर जाता,

खेतों से गेहूँ खा आता।

गेहूँ खा-खा मस्ती छाई,

तब क्या उसके मन में आई।


अब आगे की सुनो कहानी,

देखो, औंघाओ मत रानी।


खाल बाघ की उसने पाई,

उसने सूरत अजब बनाई

पहनी उसने खाल बदन में,

चला खेत चरने फिर बन में।


खाल पहन ली ऐसे वैसे,

गदहा बाघ बना हो जैसे।

फिर खुश होकर सीना ताने,

दिन में चला खेत को खाने!


डरे किसान देख कर सारे,

भागे झटपट बिना विचारेे।

तब कुछ गरहे बोले ही ज्यों,

यह भी बोला चीपों चीपों!


खुली बाघ की कलई सारी,

तब तो शामत छाई भारी।

डंडे लगे धड़ाधड़ पड़ने,

लगे गधे के पैर उखड़ने।


भगा वहाँ से यह बेचारा,

सभी तरफ से हिम्मत हारा।

गिरते पड़ते घर को धाया,

मरते मरते प्राण बचाया।

मूर्ख पंडित / सोहनलाल द्विवेदी

पंडित चार, पंडित चार,

इनकी सुनो कहानी यार!

सभी पढ़े थे वेद पुरान,

पर न जरा था उनको ज्ञान।


चारों थे पंडित विद्वान,

फिर भी थे पूरे नादान!

सबने मन में किया विचार,

चल विदेश में करें विहार।


घूमें चल कर देश तमाम,

पैदा करें दाम औ’ नाम।

साजे पोथी पत्रा साज,

चले सभी जंगल मंे आज।


देखा-मरा पड़ा था शेर,

पथ में था हड्डी का ढेर।

झटपट बोला पंडित एक,

अजी न बातें करो अनेक।


आओ अब अजमावें ज्ञान,

मरे शेर में लावें प्राण।

बहस और झंझट को छोड़,

दीं हड्डियाँ एक ने जोड़।


और एक ने मत्र उचार,

उसमें किया रक्त संचार।

करके यों ही अद्भुत तंत्र,

पढ़ने चला एक जब मंत्र।


बोला तब फिर पंडित एक,

करते क्या सोचो तो नेक।

ठीक नहीं करते यह काम,

होगा नहीं भला परिणाम।


काम कर रहे बिना विचार,

पढ़ लिखकर मत बनो गँवार।

मिली शेर को ज्यों ही जान,

लेगा तुरत तुम्हारे प्रान।


चलो नहीं ऐसी तुम चाल,

पैदा करो न अपना काल।

बात जरा सी लो यह मान,

उनमें बोला चतुर सुजान।


जब तक मैं चढ़ता हूँ पेड़,

तब तक रुको जहाँ है मेंड़।

चढ़ा पेड़ पर जहाँ सुजान,

आगे बढ़े शेष विद्वान।


जहाँ शेर में डाली जान,

गरजा सिंह, उठा बलवान।

थर थर लगे काँपने पाँव,

पंडित भूले सारे दाँव।


थे तीनों पंडित लाचार,

मचा खूब ही हाहाकार।

पर, सुनता था कौन पुकार?

झपट शेर ने डाला मार!


जब भी करो कभी कुछ काम,

पहले ही सोचो परिणाम।


दोस्तों आपको ये  बाल कविताये कैसी लगी। दोस्तों आप ये निचे कमेन्ट करके बता सकते हैं. दोस्तों आप हमारे साथ ऐसे जुड़े रहिये मई आपके लिए ऐसे पोस्ट  रहूँगा। धन्यवाद 



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